Monday, September 9, 2013

घोंसले की आड़ से


घोंसले की आड़ से  
देखी जो भीड़ को परे  
एक सिहर सी दौड़ी इधर  
मन सहम सा उठा डरे 

अपना जो बिस्तर था नरम  
और प्यार भरी ममता जो थी 
जब सब कुछ धुंधलाता दिखा 
एक चींख अन्दर से उठी 

अब वक़्त आया पंख से 
तैरने का इक नया गगन 
नयी टहनी पे बसरने 
छोड़ अपना ये आंगन 

उन टहनियों पर नव नवीन 
जो पंछी कर रहे बसर 
उस नए गगन की राह का 
है उनके संग करना सफ़र